उपन्यास >> सही नाप के जूते सही नाप के जूतेलता शर्मा
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यह उन सब महत्वाकांक्षी सुंदरियों की गाथा है जो दरअसल, सावित्री, नेहा या निकिता नहीं, उर्वशी बनने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देती हैं...
उर्मि से उर्वशी बना दी गई इस उपन्यास की नायिका की कथा, सिर्फ इसी की
गाथा नहीं है। यह उन सब महत्वाकांक्षी सुंदरियों की गाथा है जो दरअसल,
सावित्री, नेहा या निकिता नहीं, उर्वशी बनने के लिए सब कुछ दांव पर लगा
देती हैं। जिन्हें समझाया जाता है कि ‘तुम्हारी देह, तुम्हारा
मस्तिष्क, तुम्हारी अपनी पूंजी है। अंततः उसका निवेश होना ही है, तो तुम
स्वयं करो। कम से कम अस्सी प्रतिशत लाभांश तो मिलेगा।’ उन्हें
बाकायदा तैयार किया जाता है, चाहे घरेलू परिस्थितियां कितनी भी गई-गुजरी
क्यों न हों! करियर सबसे जरूरी है, तो फिर बेहतरीन को ही क्यों न चुना
जाए! क्या करना है डॉक्टर या इंजीनियर बनकर जब मिस इंडिया बनने के लिए
सिर्फ ग्रेजुएट होना अनिवार्य है! तो फिर चलो फिनिशिंग स्कूल, सीखो कैट
वॉक और मोहक अंदाज। जॉइन करो एक्वेटिक क्लब। भरो मिस इंडिया बनने का
फार्म। और फिर आगे ही आगे चलते चलो उर्वशी की तरह, पीछे मुड़कर देखना मना
है। कामयाबी आगे खड़ी इंतजार कर रही है। बनो करोड़ों दिलों की मलिका और
अंततः बदल जाओ खुद एक कमोडिटी में। खरीदो भी और बिकती भी जाओ।
बाजार देखते-देखते, बाजार हो जाने की यह गाथा सिर्फ मनोरंजन भर नहीं है। लता शर्मा का स्त्री-विमर्शकार यहां कथाकार में बखूबी प्रवेश करता है। बताता है कि अस्सी प्रतिशत लाभांश पाने की महत्त्वाकांक्षा का अर्थ क्या है यदि विवेक को ताक पर रख दिया जाए। आप इस उपन्यास को पढ़ना शुरू करेंगे, तो फिर पूरा पढ़े बगैर नहीं छोड़ सकते। रोशनी की रंगीन चमक में चहकते चेहरे की दास्तान भर नहीं है यह, यहां अकेली उदासी में टूटती सांसों की गमजदा आवाज भी सुनी जा सकती है।
बाजार देखते-देखते, बाजार हो जाने की यह गाथा सिर्फ मनोरंजन भर नहीं है। लता शर्मा का स्त्री-विमर्शकार यहां कथाकार में बखूबी प्रवेश करता है। बताता है कि अस्सी प्रतिशत लाभांश पाने की महत्त्वाकांक्षा का अर्थ क्या है यदि विवेक को ताक पर रख दिया जाए। आप इस उपन्यास को पढ़ना शुरू करेंगे, तो फिर पूरा पढ़े बगैर नहीं छोड़ सकते। रोशनी की रंगीन चमक में चहकते चेहरे की दास्तान भर नहीं है यह, यहां अकेली उदासी में टूटती सांसों की गमजदा आवाज भी सुनी जा सकती है।
उपयोगिता ह्वास नियम अर्थात्
लॉ ऑफ डिमिनिशिंग यूटिलिटी
इस सदी के बूढ़े महानायक के सामने नाच रही है विश्वसुंदरी।
यह नाच है?
‘नाच कांच है, बात सांच है।’ (सूत्रधार-संजीव)
फिर तो सच है यह सब।
मुक्त अर्थव्यवस्था के सामने नाच रही है अर्धनग्न स्त्री देह।
नाच है यह।
बूढ़े के ढीले जबड़ों, लटके गालों, लरियाते होंठों के पास, ठीक नाक के नीचे अपना उन्नत वक्ष उठा-गिरा रही है सुंदरी।
हर बूढ़े मर्द को तसल्ली मिलती है।
जेब में नोट हो तो ये उन्नत वक्ष ऐन नाक के नीचे, होंठों के पास। युवा नायक पर बूढ़े महानायक को तरजीह देती है सुंदरी।
क्यों?
बूढ़ा सत्ता है, धन है–इसीलिए अथाह ऊर्जा है।
अधेड़-बूढ़ों के सामने मेला लगा है। सोलह से अठारह, बीस से बाइस वर्ष तक की आतुर नवयौवनाओं का…
…क्या है,…कौन है जो इन्हें इसे नग्न नृत्य के लिए विवश कर रहा है? अभिभावक?…उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा?
या उपभोक्ता संस्कृति और मुक्त बाजार के शाश्वत नियम।
यह नाच है?
‘नाच कांच है, बात सांच है।’ (सूत्रधार-संजीव)
फिर तो सच है यह सब।
मुक्त अर्थव्यवस्था के सामने नाच रही है अर्धनग्न स्त्री देह।
नाच है यह।
बूढ़े के ढीले जबड़ों, लटके गालों, लरियाते होंठों के पास, ठीक नाक के नीचे अपना उन्नत वक्ष उठा-गिरा रही है सुंदरी।
हर बूढ़े मर्द को तसल्ली मिलती है।
जेब में नोट हो तो ये उन्नत वक्ष ऐन नाक के नीचे, होंठों के पास। युवा नायक पर बूढ़े महानायक को तरजीह देती है सुंदरी।
क्यों?
बूढ़ा सत्ता है, धन है–इसीलिए अथाह ऊर्जा है।
अधेड़-बूढ़ों के सामने मेला लगा है। सोलह से अठारह, बीस से बाइस वर्ष तक की आतुर नवयौवनाओं का…
…क्या है,…कौन है जो इन्हें इसे नग्न नृत्य के लिए विवश कर रहा है? अभिभावक?…उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा?
या उपभोक्ता संस्कृति और मुक्त बाजार के शाश्वत नियम।
चल खुसरो घर आपने
खट्ट…खट्ट…खटर…खटर
ठेला गाड़ी हिचकोले खाती, सड़क पर चली जा रही थी। हर हिचकोले के साथ ठेले पर रखी लाश का सिर झटके से हिलता और ठेला गाड़ी के हत्थे से टकराता…खट्ट…खट्ट।
रजनीकांत को लगा, उनका ही सिर टकरा रहा है…‘ये लोग ठीक से क्यों नहीं चलाते इस गाड़ी को!’
नगरपालिका का वर्दीधारी कर्मचारी ठेलागाड़ी धकेल रहा था। दाग-धब्बों से भरी, नीले सफेद चारखाने वाली मैली चादर से ढकी लाश, हर हिचकोले के साथ, इधर से उधर, लुढ़कती टकराती चली जा रही थी।
कौन है यह बदनसीब!
कोई ढंग से कफन-दफन देने वाला भी नहीं! सारी गली सांस रोके यह मंजर देख रही थी।
दुकान के सामने पड़ी बेंच पर बैठे अखबार पढ़ते लोग, फुटपाथ पर सब्जी बेचते रेहड़ी वाले, लड़ते-झगड़ते बच्चे, स्कूल-कॉलेज के छात्र और दफ्तर जाते बाबू।
‘कौन है यह?’
‘कमाल है! हमारे मुहल्ले में कोई मर गया और हमें पता ही नहीं!’
आखिर नरेश बाबू ने मुहल्ले के बुजुर्ग की हैसियत से आगे बढ़कर नगरपालिका के कर्मचारियों को टोका।
‘‘कौन है भाई? किसे ले जा रहे हो?’’
‘‘पता नहीं साब।’’ खट्ट। हमें तो ‘‘कावेरी’’ बिल्डिंग के चौकीदार ने खबर दी। खट्ट। फ्लैट नंबर 5 में रहती थी। तीन-चार दिन से दूध की बोतल नहीं उठाई। खटखटाने पर कोई बोला नहीं। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई।’’
बाकी बात दूसरे ने बताई।
‘‘दरवाजा तोड़ा तो लहाश मिली।’’
खैरियत।
अपने एकांतिक स्वभाव के चलते सदा की तरह रजनीकांत दुकान से ही यह देख रहे थे। दिल की धड़कन रुकती जान पड़ी। वो कुरसी में ढह गए।
फ्लैट नंबर पांच–कावेरी।
‘यह तो…यह तो…वही पता है।’
‘तो क्या यह लावारिस लाश उसकी थी?’
‘तीन-चार दिन से दिखाई नहीं दी।’
‘सोचा, इधर का कोई काम न रहा होगा। तबीयत नरम-गरम होगी।’
यह कभी नहीं सोचा था कि उन बंद दरवाजों के पीछे वह आखिरी सांसे ले रही होगी।
अकेली…असहाय…अनाथ…
वही, जिसकी एक झलक के दीवाने थे रजनीकांत। वही, जिसके लिए सब कुछ लुटा देते रजनीकांत। वही, जो…
‘‘अरे! अखबार फेंक।’’ नरेश बाबू दौड़े।
दौड़े तो और भी कई लोग।
मगर उन्हें कोई नहीं पकड़ पाया।
काया कुर्सी में ही पसरी छोड़ चले गए रजनीकांत। उस माया के पीछे जो इधर-उधर लुढ़कती टकराती ठेले पर जा रही थी।
खट्ट…खट्ट…खटर खटर…खटर।
धप् धप्…टप…पत्थर तीसरे खाने में गिरा। थक…थक…थक लड़की एक टांग पर कूदती तीसरे खाने तक आई, पत्थर उठाया, चूमा और एक टांग पर कूदती सारे खाने पार कर गई। अब आंखें मूंद, पत्थर चूमकर सिर के ऊपर से फेंका। पत्थर सब खानों के पार गिरा। लड़की परम प्रसन्न। फिर वही लंगड़ी टांग। इस बार पत्थर चौथे खाने में फेंका। आंखें मूंद, कुछ मंत्र-वंत्र पढ़ चूम-चाट कर। फिर भी पत्थर चौथे और पांचवें खाने की संधि रेखा पर गिरा। ‘‘धत्त तेरे की!’’ लड़की ठुनकी। गहरी सांस ले पत्थर उठाया और अब वो उर्वशी जनरल स्टोर की ओर बढ़ी। वैसे ही एक टांग पर कूदती हुई।
रजनीकांत की एक आंख घड़ी पर थी और दूसरी उस दायीं टांग पर कूदती लड़की पर। ‘हे रामसा पीर! इस छोरी को भी अभी आना था। साढ़े नौ बजने वाले हैं। दुकान बंद करने का वक्त है और ये छोरी! एक टांग पर कूदती कब पहुंचेगी दुकान तक?’
अच्छा-खासा अंधेरा है। म्यूनिसिपैल्टी की इक्का-दुक्का ट्यूब लाइट अपने नीचे ही आलोक वृत फैलाए है। गली में खूब आवाजाही है। गायें थक कर अपने निश्चित ठिये पर बैठी है। कुत्तों ने भी अपने-अपने स्थान आरक्षित कर लिए हैं। बूढ़ा नीम शाखों पर रजिस्टर फैलाए हिसाब-किताब मिला रहा है। कौन आया, कौन नहीं। घर-घर से रोटी-परांठे सिंकने की सौंधी खुशबू उठ रही है। ये…ये किसी ने शुद्ध घी में हींग का बघार लगाया। कहीं सरसों के तेल में बेसन के पकौड़े तले जा रहे हैं। पतली-सी सड़कनुमा गली गुलज़ार है। बड़े-बूढ़े खाना खाकर चबूतरों पर आ डटे हैं। खैनी सुरती मलते नसवार सूंघते दिनभर की कारगुजारियों का जायजा ले रहे हैं। जैनियों का खाना-पीना सूर्यास्त से पहले ही संपन्न हो चुका है। वो घूमने निकल आए हैं। सड़क पर दूर-दूर तक कुछ भी नहीं।
‘‘एक रुपए की इमली।’ लड़की आखिर दुकान तक पहुंच ही गई। उधर बड़ी सुई साढ़े नौ तक।
‘‘इमली नहीं है, सुबह ही खत्म हो गई।’’
‘‘आप देखो तो सही अंकल।’’ लड़की एक टांग पर झूलती काउंटर पर रखे चॉकलेट के पारदर्शी डिब्बों के ढक्खन खोलने में जुट गई।
‘‘देख लिया, नहीं है इमली।’’ उसके हाथ पर हल्की-सी चपत लगा, ढक्कन कसा रजनीकांत ने।
वो फुदकती हुई चौथा डिब्बा खोलने लगी।
‘‘ये चॉकलेट कितने की है। मम्मी ने कहा है एक दो फली मिल जाएं तो भी काम चल जाएगा। ये चॉकलेट…दो नहीं…चार दे दीजिये। हमारे हिसाब में लिख देना…मम्मी ने कहा है इमली चाहिए ही चाहिए।’’
‘ये गली-मुहल्ले की दुकानदारी।’ मन ही मन भुनभुनाये रजनीकांत। उधर बड़ी सुई सात का अंक पार कर आठ की ओर बढ़ चली। किसी भी समय…अब किसी भी समय…वो झपट कर उठे, इमली के डिब्बे में से दो-चार फलियां निकाली और कागज की पुड़िया में बांधने लगे। लड़की तन्मयता से एक टांग पर झूलती कांच के खूबसूरत डिब्बों में झांक रही थी। ‘हे रामसा! और बच्चों की तरह ये छोरी दो टांगों पर क्यों नहीं चलती…?’ उन्होंने झट से इमली की पुड़िया और दो सस्ती सी चॉकलेट लड़की की हथेली पर रख दी।
‘‘अब जा…दुकान बंद करने का वक्त हो गया।’’ लड़की मन मगन चॉकलेट मुट्ठी में दबा एक टांग पर कूदती चल दी। नौ चालीस। रजनीकांत ने फौरन काउंटर साफ किया, स्वर्णचंपा मोक्ष अगरबत्ती सुलगाई, अपना मुंह पोंछा, कपड़े झाड़े, बालों में कंघी फिराई, पोंड्स पाउडर और तब…तब दूर नजर घुमाई। सड़क सुनसान थी।
मोहल्ले के अंदर बने मकान की निचली मंजिल पर बनी दुकान। खरीदार, आस-पास के लोग। सांझ होते ही खरीदारी मंद पड़ने लगती। दुकान व्यापार कम, बैठने का ठीया ज्यादा!...दुकान के आगे दो बैंच पड़ी हैं। लोग आते हैं, बैठते हैं, अखबार पढ़ते हैं, और कुछ न कुछ खरीदते ही हैं। बीड़ी, सिगरेट, माचिस! चॉकलेट-बिस्कुट, कार्नफ्लैक्स, बेसन-मैदा, गुड़-शक्कर, नमक-मिर्च। घर-गृहस्थी में कुछ न कुछ जरूरत लगी ही रहती है। उन्हीं ज़रूरतों के चलते दुकान चलती है। रात होते ही बैंच खाली हो जाती है। दुकान बंद करने से पहले, उन्हें उठाकर अंदर रख लिया जाता है, दूसरे दिन सुबह फिर बाहर निकालने के लिए।
दूर कुछ काला-सा दिखा। ‘हां…वही है। काला बुरका।’
ठेला गाड़ी हिचकोले खाती, सड़क पर चली जा रही थी। हर हिचकोले के साथ ठेले पर रखी लाश का सिर झटके से हिलता और ठेला गाड़ी के हत्थे से टकराता…खट्ट…खट्ट।
रजनीकांत को लगा, उनका ही सिर टकरा रहा है…‘ये लोग ठीक से क्यों नहीं चलाते इस गाड़ी को!’
नगरपालिका का वर्दीधारी कर्मचारी ठेलागाड़ी धकेल रहा था। दाग-धब्बों से भरी, नीले सफेद चारखाने वाली मैली चादर से ढकी लाश, हर हिचकोले के साथ, इधर से उधर, लुढ़कती टकराती चली जा रही थी।
कौन है यह बदनसीब!
कोई ढंग से कफन-दफन देने वाला भी नहीं! सारी गली सांस रोके यह मंजर देख रही थी।
दुकान के सामने पड़ी बेंच पर बैठे अखबार पढ़ते लोग, फुटपाथ पर सब्जी बेचते रेहड़ी वाले, लड़ते-झगड़ते बच्चे, स्कूल-कॉलेज के छात्र और दफ्तर जाते बाबू।
‘कौन है यह?’
‘कमाल है! हमारे मुहल्ले में कोई मर गया और हमें पता ही नहीं!’
आखिर नरेश बाबू ने मुहल्ले के बुजुर्ग की हैसियत से आगे बढ़कर नगरपालिका के कर्मचारियों को टोका।
‘‘कौन है भाई? किसे ले जा रहे हो?’’
‘‘पता नहीं साब।’’ खट्ट। हमें तो ‘‘कावेरी’’ बिल्डिंग के चौकीदार ने खबर दी। खट्ट। फ्लैट नंबर 5 में रहती थी। तीन-चार दिन से दूध की बोतल नहीं उठाई। खटखटाने पर कोई बोला नहीं। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई।’’
बाकी बात दूसरे ने बताई।
‘‘दरवाजा तोड़ा तो लहाश मिली।’’
खैरियत।
अपने एकांतिक स्वभाव के चलते सदा की तरह रजनीकांत दुकान से ही यह देख रहे थे। दिल की धड़कन रुकती जान पड़ी। वो कुरसी में ढह गए।
फ्लैट नंबर पांच–कावेरी।
‘यह तो…यह तो…वही पता है।’
‘तो क्या यह लावारिस लाश उसकी थी?’
‘तीन-चार दिन से दिखाई नहीं दी।’
‘सोचा, इधर का कोई काम न रहा होगा। तबीयत नरम-गरम होगी।’
यह कभी नहीं सोचा था कि उन बंद दरवाजों के पीछे वह आखिरी सांसे ले रही होगी।
अकेली…असहाय…अनाथ…
वही, जिसकी एक झलक के दीवाने थे रजनीकांत। वही, जिसके लिए सब कुछ लुटा देते रजनीकांत। वही, जो…
‘‘अरे! अखबार फेंक।’’ नरेश बाबू दौड़े।
दौड़े तो और भी कई लोग।
मगर उन्हें कोई नहीं पकड़ पाया।
काया कुर्सी में ही पसरी छोड़ चले गए रजनीकांत। उस माया के पीछे जो इधर-उधर लुढ़कती टकराती ठेले पर जा रही थी।
खट्ट…खट्ट…खटर खटर…खटर।
धप् धप्…टप…पत्थर तीसरे खाने में गिरा। थक…थक…थक लड़की एक टांग पर कूदती तीसरे खाने तक आई, पत्थर उठाया, चूमा और एक टांग पर कूदती सारे खाने पार कर गई। अब आंखें मूंद, पत्थर चूमकर सिर के ऊपर से फेंका। पत्थर सब खानों के पार गिरा। लड़की परम प्रसन्न। फिर वही लंगड़ी टांग। इस बार पत्थर चौथे खाने में फेंका। आंखें मूंद, कुछ मंत्र-वंत्र पढ़ चूम-चाट कर। फिर भी पत्थर चौथे और पांचवें खाने की संधि रेखा पर गिरा। ‘‘धत्त तेरे की!’’ लड़की ठुनकी। गहरी सांस ले पत्थर उठाया और अब वो उर्वशी जनरल स्टोर की ओर बढ़ी। वैसे ही एक टांग पर कूदती हुई।
रजनीकांत की एक आंख घड़ी पर थी और दूसरी उस दायीं टांग पर कूदती लड़की पर। ‘हे रामसा पीर! इस छोरी को भी अभी आना था। साढ़े नौ बजने वाले हैं। दुकान बंद करने का वक्त है और ये छोरी! एक टांग पर कूदती कब पहुंचेगी दुकान तक?’
अच्छा-खासा अंधेरा है। म्यूनिसिपैल्टी की इक्का-दुक्का ट्यूब लाइट अपने नीचे ही आलोक वृत फैलाए है। गली में खूब आवाजाही है। गायें थक कर अपने निश्चित ठिये पर बैठी है। कुत्तों ने भी अपने-अपने स्थान आरक्षित कर लिए हैं। बूढ़ा नीम शाखों पर रजिस्टर फैलाए हिसाब-किताब मिला रहा है। कौन आया, कौन नहीं। घर-घर से रोटी-परांठे सिंकने की सौंधी खुशबू उठ रही है। ये…ये किसी ने शुद्ध घी में हींग का बघार लगाया। कहीं सरसों के तेल में बेसन के पकौड़े तले जा रहे हैं। पतली-सी सड़कनुमा गली गुलज़ार है। बड़े-बूढ़े खाना खाकर चबूतरों पर आ डटे हैं। खैनी सुरती मलते नसवार सूंघते दिनभर की कारगुजारियों का जायजा ले रहे हैं। जैनियों का खाना-पीना सूर्यास्त से पहले ही संपन्न हो चुका है। वो घूमने निकल आए हैं। सड़क पर दूर-दूर तक कुछ भी नहीं।
‘‘एक रुपए की इमली।’ लड़की आखिर दुकान तक पहुंच ही गई। उधर बड़ी सुई साढ़े नौ तक।
‘‘इमली नहीं है, सुबह ही खत्म हो गई।’’
‘‘आप देखो तो सही अंकल।’’ लड़की एक टांग पर झूलती काउंटर पर रखे चॉकलेट के पारदर्शी डिब्बों के ढक्खन खोलने में जुट गई।
‘‘देख लिया, नहीं है इमली।’’ उसके हाथ पर हल्की-सी चपत लगा, ढक्कन कसा रजनीकांत ने।
वो फुदकती हुई चौथा डिब्बा खोलने लगी।
‘‘ये चॉकलेट कितने की है। मम्मी ने कहा है एक दो फली मिल जाएं तो भी काम चल जाएगा। ये चॉकलेट…दो नहीं…चार दे दीजिये। हमारे हिसाब में लिख देना…मम्मी ने कहा है इमली चाहिए ही चाहिए।’’
‘ये गली-मुहल्ले की दुकानदारी।’ मन ही मन भुनभुनाये रजनीकांत। उधर बड़ी सुई सात का अंक पार कर आठ की ओर बढ़ चली। किसी भी समय…अब किसी भी समय…वो झपट कर उठे, इमली के डिब्बे में से दो-चार फलियां निकाली और कागज की पुड़िया में बांधने लगे। लड़की तन्मयता से एक टांग पर झूलती कांच के खूबसूरत डिब्बों में झांक रही थी। ‘हे रामसा! और बच्चों की तरह ये छोरी दो टांगों पर क्यों नहीं चलती…?’ उन्होंने झट से इमली की पुड़िया और दो सस्ती सी चॉकलेट लड़की की हथेली पर रख दी।
‘‘अब जा…दुकान बंद करने का वक्त हो गया।’’ लड़की मन मगन चॉकलेट मुट्ठी में दबा एक टांग पर कूदती चल दी। नौ चालीस। रजनीकांत ने फौरन काउंटर साफ किया, स्वर्णचंपा मोक्ष अगरबत्ती सुलगाई, अपना मुंह पोंछा, कपड़े झाड़े, बालों में कंघी फिराई, पोंड्स पाउडर और तब…तब दूर नजर घुमाई। सड़क सुनसान थी।
मोहल्ले के अंदर बने मकान की निचली मंजिल पर बनी दुकान। खरीदार, आस-पास के लोग। सांझ होते ही खरीदारी मंद पड़ने लगती। दुकान व्यापार कम, बैठने का ठीया ज्यादा!...दुकान के आगे दो बैंच पड़ी हैं। लोग आते हैं, बैठते हैं, अखबार पढ़ते हैं, और कुछ न कुछ खरीदते ही हैं। बीड़ी, सिगरेट, माचिस! चॉकलेट-बिस्कुट, कार्नफ्लैक्स, बेसन-मैदा, गुड़-शक्कर, नमक-मिर्च। घर-गृहस्थी में कुछ न कुछ जरूरत लगी ही रहती है। उन्हीं ज़रूरतों के चलते दुकान चलती है। रात होते ही बैंच खाली हो जाती है। दुकान बंद करने से पहले, उन्हें उठाकर अंदर रख लिया जाता है, दूसरे दिन सुबह फिर बाहर निकालने के लिए।
दूर कुछ काला-सा दिखा। ‘हां…वही है। काला बुरका।’
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